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मैं अनहद में गिरता नद हूँ / प्रमोद तिवारी

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मैं अनहद में गिरता नद हूं
मेरी शांति अर्थवत्ता है
मैं इन संकरी और रेंगती
नदियों के सम्मुख क्या बोलूँ

थर्रा जाती हैं चट्टानें
जब भी मैंने स्वर साधा है
मैंने सिंहासन के सम्मुख
खुद सर पर
साफा बांधा है
मेरे दिये गये सम्बोधन
लोगों को जागीर लगे हैं
जितना मैं कहता हूँ
मेरा आशय
उससे भी ज्यादा है
मेरा गीत स्वयं में राजा
मेरा शब्द-शब्द सत्ता है
मैं इन आधी और अधूरी
कृतियों के सम्मुख क्या बोलूँ

तेज़ हवा में
तिनके जैसा
दिशाहीन
उड़ने से बेहर
ठहरे रहो
जहां ठहरे हो
देखो सावन
देखो पतझर
मैं नभ का
अभिनन्दन करने वाली
कब परवाज़ रहा हूँ
मैं तो जी उठता हूं
नौकाओं की
झीनीं पालें छूकर
मैं दरिया के
बीच खडा हूँ
तट तो मेरा
अधिवक्ता है
मैं लहरों सी
उठती गिरती
छवियों के
सम्मुख क्या बोलूँ

सूरज को
सूरज लिखता हूँ
अंधियारों की
नजर चढ़ा हूँ
चंदा को चंदा कहता हूँ
कड़ी धूप में
पला-बढ़ा हूँ
मेरे तन पर जो कुर्ता है
वह मुझसे
अक्सर कहता है
जिसके हाथ
समय का धागा
उस दर्जी के
हाथ कढ़ा हूँ
गिरना-उठना
उठना-गिरना
इससे ही जीवन चलता है
फिर मैं
ग्रह नक्षत्र की धुंधली
प्रतियों के
सम्मुख क्या बोलूँ