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ये ज़मीं वो आसमाँ ऐसा न था / 'महताब' हैदर नक़वी

ये ज़मीं वो आसमाँ ऐसा न था
इस तरह दरिया कभी बहता न था

ज़ख़्म भी इतने हरे पहले न थे
ये चमन गुलरंग भी ऐसा न था

सर- बरहना सूरजों के बीच थे
यूँ ख़या-ए-यार बेसाया न था

इक सितारा दिल में रोशन था मगर
आँख ने उसको कभी देखा न था

उस तरफ़ ही देखता रहत्त था मैं
बो दरीचा देर तक खुलता न था

एक ही सहरा के बासी थे सभी
कोई अपना, कोई बेगाना न था

हर तरफ़ तारीक़ थी दुनिया मगर
इक चिराग़-ए-दिल कभी बुझता न था