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<poem>
रख के मेज़ों पे जो भारत का अलम बैठे हैं
जाहिरन खा के वो ओहदे की कसम क़सम बैठे हैं
बिन बुलाए ही चली आती हैं जो शाम ढले
बस उसी याद दीदानम सिर्फ़ उन्हीं यादों में हम दीदा-ए-नम बैठे हैं
खुश्क होटों पे जबां फेर के कब प्यास बुझी
अश्क पीते हैं यहाँ खा के जो ग़म बैठे हैं
सोचकर, बस यही सोच के हम राह में ठहरा ठहरे ही नहीं इक पल के लिए मंज़िले लुत्फ़ मंज़िल का उठाते हैं जो कम बैठे हैं
चारसू आग है नफरत नफ़रत की न जाने फिर भी क्यों "हाथ पर हाथ धरे अहले कलम क़लम बैठे हैं"
आज की रात मेरे दिल पे गिरेगी बिजली
सोलह श्रिंगार सिंगार किए मेरे सनम बैठे हैं
बुझ रहे हुस्न के हुक्के को तेरे अब भी 'रक़ीब'
गुड़गुड़ाने के लिए भर के चिलम बैठे हैं
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