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रामप्रेम ही सार है / तुलसीदास/ पृष्ठ 11

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रामप्रेम ही सार है-11

 (57)

मातु -पिताँ जग जाइ तज्यो बिधिहूँ न लिखी कछु भाल भलाई ।
नीच, निरादरभाजन, कादर, कूकर-टूकन लागि ललाई।।

 रामु-सुभाउ सुन्यो तुलसीं प्रभुसों कह्यो बारक पेटु खलाई।
स्वारथ केा परमारथ को रधुनाथु सो साहेबु, खोरि न लाई।।

(58)

पाप हरे , परिताप हरे, तनु पूजि भो हीतल सीतलताई।
हंसु कियो बकतें, बलि जाउँ, कहाँ लौं कहौं करूना-अधिकाई ।

कालु बिलोकि कहै तुलसी, मनमें प्रभुकी परतीति अघाई।
जन्मु जहाँ ,तहँ रावरे सों निबहैं भरि देह सनेह-सगाई।।