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राम बुद्ध से, कृष्ण राम से, बुद्ध कृष्ण से, बापुओं की शरण पा गए।
मूँद कर आँख चलते रहे, हम कहाँ से कहाँ आ गए।
मुश्किलों में जिए थे मगर, दूसरों को भी जीने दिया,
फिर जो पश्चिम से आया धुआँन जाने हमें क्या हुआ, जो मिला मारकर खा गए।
चोर -डाकू ही भाये हमें, देश हमने भी ब्याहा सौंपा उन्हें,हर सितम चुप हो सहते रहे, हम भी आखिर आख़िर उन्हें भा गए।
उम्र भर धूप सहते रहे, बन सके मेघ फिर भी न हम,
अंत में बनके बन के काला धुआँ, खुद की साँसों पे हम छा गए।
सुन समाचार कुढ़ते रहे, जिंदगी ज़िंदगी भर कहा किया कुछ नहीं,अब कहें करें तब कहें करें सोचते, अंत में हम भी मुँह बा, गए।
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