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रिहाई / शशि काण्डपाल

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सूनी सी डगर,
ना आये कोई लौट कर
आँखे तकती हों रास्ता
और वो बैरी सा
बिखरा दे अहसास
तो क्या कह कर खुद को बहलाना...
बस..जाओ तुम्हें रिहा किया...

जब रेशम सी डोर,
उलझ उलझ गई,
समय की रफ़्तार,
थम सी गई..
जब इन्तजार दिनों का, सालो में,
जवाब, कटीले सवालों में
दिन,शाम, रातें चुक गई
लेकिन तुम्हे न मिला वक़्त
वादों को दोहराने का
तो जाओ तुम्हे रिहा किया...

साहिल पर लिखे नाम
वो संजोयी तानें,
वो तारों भरी रातें भी ..
काश तेरी मेरी होतीं..
जब लहरों सी मिटाने की फितरत तेरी हो
तो जाओ तुम्हें रिहा किया..

अब कूक जगाना मधुबन में
अब बसंत ही बसे, जीवन में
और मैं भी ले लूँ,
कुछ कम बोझिल साँसे
और समझ लूं गीत विरह का...
जो मेरा था ना,
उसे क्या दोहराना...
तो जाओ मैंने तुम्हे रिहा किया...