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लोहा / दिनेश कुमार शुक्ल

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लोहा
धरती से निकला
फिर वापस
धरती में घुसता है लोहा
बन कर हल की फाल!
लोहे के बल पर ही चलती
सबकी रोटी-दाल!

हलवाहे के जीवट में
जो है सो लोहा
यह कबीर का दोहा
इसमें भी है लोहा

नील गगन-सा नीला लोहा
मन से बेहद-गीला लोहा
इतना अधिक लचीला लोहा
असिधारा पर चलने वाला
वैसे बहुत हठीला लोहा

उठी हुई मुठ्ठी में लोहा
आत्मा की भठ्ठी में लोहा
तभी बदलती है दुनिया
जब लोहे से टकराता लोहा

धरती पर जितना भी लोहू
बहता है सब बनता लोहा
हत्यारे भी मान गये हैं
इस बहते लोहू का लोहा

लौह-कपाट तोड़ता लोहा
युग की धार मोड़ता लोहा
दुनिया-देस जोड़ता लोहा

पुरखों के घर तक ले जाता
कलकते की सैर कराता
रपट-रपट कर लोहे पर
सरपट चलता है सो भी लोहा

चला जा रहा था राजा का
घोड़ा सरपट चाल
उड़ती थी चिनगारी
पत्थर से टकराती नाल

राजा छल-बल से लोहे का
करता इस्तेमाल
समझ गया लोहा राजा का
तिकड़म-गहरी चाल

सब कुछ जान गया था लोहा
युग के दुख में सीझा लोहा
खुद पर इतना खीझा लोहा
काट रहा था कालिदास बनकर
खुद अपनी डाल

अब तक वह दुख
साल रहा है
बीते इतने साल!

सो तिल-तिल कर गलता लोहा
और खनिज बन कर फिर वापस
धरती में ढलता है लोहा