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वंग / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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157.

पुजब महादेव दुसर न काहु। जिनके पुजत कत पतित निबाहु॥
जिनके न मुँड-माल मृग-छाल, गाती। चँदन पुहुप, धुप अछत न पाती॥
जिनके न जटा लट भसम न भंगा। गनपति फनपति गौरि न गंगा॥
एक महादेव सकल सँहारा। धरनि के धन वित जिवन अधारा॥1॥

158.

गंगादास बड़े तप पाई। जनम जनम कर कर्म नसाई॥
जँह एक संगम त्रिगुन त्रिवेनी। अष्ट कोटि तीरथ फल-देनी॥
हरिहर ब्रह्म घरै जेहि ध्याना। वेद विमल-यश करहि बखाना॥
संत अनंत भजन तँह ठानी। रवि शशि अग्नि पवन नहि पानी॥
धरनी सुनल संत गुरुवानी। छुटि गैल भरम मेटल कुल कानी॥2॥

159.

धनि कर्त्ता कइलै जिन देही। मन वच क्रम अब करउ सनेही॥
जिन मोहि दिहल पिता अरु माता। जिन प्रभु रचल सकल जग नाता॥
जिन मोहि सत गुरु दिहल लखाई। संत शहर घर दिहल छवाई॥
धरनि सहज सुख सुरपति साखी। कर्त्ताराम हृदय धरि राखी॥3॥

160.

लछिमि नरायन देवन देवा। सुर नर मुनि गन फनति सेवा॥
तुव गति अविगति अगम अपारा। रहत सकल घट सबते न्यारा॥
त्रिगुण रहित प्रभु त्रिभुवन राजा। पतित पवन वर विरद विराजा॥
मन वच क्रम मोहि तुव विश्वासा। धरनि जपत धनि धनि तुव दासा॥4॥

161.

अब एक तुमहि हमहिँ बनि आई। जग हँसु भावै करौ बड़ाई॥
जोँ तू ब्रह्म हमहुँ ब्रहमचारी। जोँ तु विष्णु हम मालाधारी॥
जोँ तू रुद्र तौ हम भगवाना। जौ तू देवा हमहुँ सयाना॥
जोँ तू निर्गुन तौ हम साधू। जोँ तू राहू हमहुँ दुसाधू॥
जोँ तू गनपति हम हलुवाई। तो हम तुरुक जोँ तुमहि खोदाई॥
तुमहि पिता हम पुत पुतरेला। तुमहि परमगुरु मैं तुव चेला॥5॥