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वही दरबारी तरीके / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र

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वही राजा -वही परजा
वही दूरी

वही ऊँचे महल
सपनों के झरोखे
राजपथ पर वही फिसलन
वही धोखे

वही दरबारी तरीके - जी-हुज़ूरी

तार सोने के
शहर पैबंद सिलते
आँख-मूँदे
बस्तियों से दिन निकलते

रोज़ जलसे में गुज़रती रात पूरी

रेशमी चेहरे
लगाये हैं जमूरे
गुंबजों की भीड़ में
सूरज अधूरे

शाह की मीनार - हैं पहरे ज़रूरी