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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / एकादश सर्ग / पृष्ठ ३

पुर नगर ग्राम कब उजड़े।
कब कहाँ आपदा आई॥
अपवाद लगाकर यों ही।
कब जनता गयी सताई॥41॥

प्रियतम समान जन-रंजन।
भव-हित-रत कौन दिखाया॥
पर सुख निमित्त कब किसने।
दुख को यों गले लगाया॥42॥

घन गरज-गरज कर बहुधा।
भव का है हृदय कँपाता॥
पर कान्त का मधुर प्रवचन।
उर में है सुधा बहाता॥43॥

जिस समय जनकजा घन की।
अवलोक दिव्य-श्यामलता॥
थीं प्रियतम-ध्यान-निमग्ना।
कर दूर चित्त-आकुलता॥44॥

आ उसी समय आलय में।
सौमित्रा-अनुज ने सादर॥
पग-वन्दन किया सती का।
बन करुण-भाव से कातर॥45॥

सीतादेवी ने उनको।
परमादर से बैठाला॥
लोचन में आये जल पर-
नियमन का परदा डाला॥46॥

फिर कहा तात बतला दो।
रघुकुल-पुंगव हैं कैसे?॥
जैसे दिन कटते थे क्या।
अब भी कटते हैं वैसे?॥47॥

क्या कभी याद करते हैं।
मुझ वन-निवासिनी को भी॥
उसको जिसका आकुल-मन।
है पद-पंकज-रज-लोभी॥48॥

चातक से जिसके दृग हैं।
छबि स्वाति-सुधा के प्यासे॥
प्रतिकूल पड़ रहे हैं अब।
जिसके सुख-बासर पासे॥49॥

जो विरह वेदनाओं से।
व्याकुल होकर है ऊबी॥
दृग-वारि-वारिनिधि में जो।
बहु-विवशा बन है डूबी॥50॥

हैं कीर्ति करों से गुम्फित।
जिनकी गौरव-गाथायें॥
हैं सकुशल सुखिता मेरी।
अनुराग-मूर्ति- मातायें?॥51॥

हो गये महीनों उनके।
ममतामय-मुख न दिखाये॥
पावनतम-युगल पगों को।
मेरे कर परस न पाये॥52॥

श्रीमान् भरत-भव-भूषण।
स्नेहार्द्र सुमित्रा-नन्दन॥
सब दिनों रही करती मैं॥
जिनका सादर अभिनन्दन॥53॥

हैं स्वस्थ, सुखित या चिन्तित।
या हैं विपन्न-हित-व्रत-रत॥
या हैं लोकाराधन में।
संलग्न बन परम-संयत॥54॥

कह कह वियोग की बातें।
माण्डवी बहुत थी रोई॥
उर्मिला गयी फिर आई।
पर रात भर नहीं सोई॥55॥

श्रुतिकीर्ति का कलपना तो।
अब तक है मुझे न भूला॥
हो गये याद मेरा उर।
बनता है ममता-झूला॥56॥

यह बतला दो अब मेरी।
बहनों की गति है कैसी?
वे उतनी दुखित न हों पर,
क्या सुखित नहीं हैं वैसी?॥57॥

क्या दशा दासियों की है।
वे दुखित तो नहीं रहतीं॥
या स्नेह-प्रवाहों में पड़।
यातना तो नहीं सहतीं॥58॥

क्या वैसी ही सुखिता है।
महि की सर्वोत्ताम थाती॥
क्या अवधपुरी वैसी ही।
है दिव्य बनी दिखलाती॥59॥

मिट गयी राज्य की हलचल।
या है वह अब भी फैली॥
कल-कीर्ति सिता सी अब तक।
क्या की जाती है मैली॥60॥