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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचम सर्ग / पृष्ठ २

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देख जनक-तनया का आनन सुन उनकी बातें सारी।
बोल सके कुछ काल तक नहीं अखिल-लोक के हितकारी॥
फिर बोले गम्भीर भाव से अहह प्रिये क्या बतलाऊँ।
है सामने कठोर समस्या कैसे भला न घबराऊँ॥16॥

इतना कह लोकापवाद की सारी बातें बतलाईं।
गुरुतायें अनुभूत उलझनों की भी उनको जतलाईं॥
गन्धर्वों के महा-नाश से प्रजा-वृन्द का कँप जाना।
लवणासुर का गुप्त भाव से प्राय: उनको उकसाना॥17॥

लोकाराधन में बाधायें खड़ी कर रहा है कैसी।
यह बतला फिर कहा उन्होंने शान्ति-अवस्था है जैसी॥
तदुपरान्त बन संयत रघुकुल-पुंगव ने यह बात कही।
जो जन-रव है वह निन्दित है, है वह नहीं कदापि सही॥18॥

यह अपवाद लगाया जाता है मुझको उत्तोजित कर।
द्रोह-विवश दनुजों का नाश कराने में तुम हो तत्पर॥
इसी सूत्र से कतिपय-कुत्साओं की है कल्पना हुई।
अविवेकी जनता के मुख से निन्दनीय जल्पना हुई॥19॥

दमन नहीं मुझको वांछित है तुम्हें भी न वह प्यारा है।
सामनीति ही जन अशान्ति-पतिता की सुर-सरि-धरा है॥
लोकाराधन के बल से लोकापवाद को दल दूँगा।
कलुषित-मानस को पावन कर मैं मन वांछित फल लूँगा॥20॥

इच्छा है कुछ काल के लिए तुमको स्थानान्तरित करूँ।
इस प्रकार उपजा प्रतीति मैं प्रजा-पुंज की भ्रान्ति हरूँ॥
क्यों दूसरे पिसें, संकट में पड़, बहु दुख भोगते रहें।
क्यों न लोक-हित के निमित्त जो सह पाएँ हम स्वयं सहें॥21॥

जनक-नन्दिनी ने दृग में आते ऑंसू को रोक कहा।
प्राणनाथ सब तो सह लूँगी क्यों जाएगा विरह सहा॥
सदा आपका चन्द्रानन अवलोके ही मैं जीती हूँ।
रूप-माधुरी-सुधा तृषित बन चकोरिका सम पीती हूँ॥22॥

बदन विलोके बिना बावले युगल-नयन बन जाएँगे।
तार बाँध बहते ऑंसू का बार-बार घबराएँगे॥
मुँह जोहते बीतते बासर रातें सेवा में कटतीं।
हित-वृत्तियाँ सजग रह पल-पल कभी न थीं पीछे हटतीं॥23॥

मिले बिना ऐसा अवसर कैसे मैं समय बिताऊँगी।
अहह! आपको बिना खिलाये मैं कैसे कुछ खाऊँगी॥
चित्त-विकल हो गये विकलता को क्यों दूर भगाऊँगी।
थाम कलेजा बार-बार कैसे मन को समझाऊँगी॥24॥

क्षमा कीजिए आकुलता में क्या कहते क्या कहा गया।
नहीं उपस्थित कर सकती हूँ मैं कोई प्रस्ताव नया॥
अपने दुख की जितनी बातें मैंने हो उद्विग्न कहीं।
आपको प्रभावित करने का था उनका उद्देश्य नहीं॥25॥

वह तो स्वाभाविक-प्रवाह था जो मुँह से बाहर आया।
आह! कलेजा हिले कलपता कौन नहीं कब दिखलाया॥
किन्तु आप के धर्म का न जो परिपालन कर पाऊँगी।
सहधार्मिणी नाथ की तो मैं कैसे भला कहाऊँगी॥26॥

वही करूँगी जो कुछ करने की मुझको आज्ञा होगी।
त्याग, करूँगी, इष्ट सिध्दि के लिए बना मन को योगी॥
सुख-वासना स्वार्थ की चिन्ता दोनों से मुँह मोडूँगी।
लोकाराधन या प्रभु-आराधन निमित्त सब छोड़ूँगी॥27॥

भवहित-पथ में क्लेशित होता जो प्रभु-पद को पाऊँगी।
तो सारे कण्टकित-मार्ग में अपना हृदय बिछाऊँगी॥
अनुरागिनी लोक-हित की बन सच्ची-शान्ति-रता हूँगी।
कर अपवर्ग-मन्त्र का साधन तुच्छ स्वर्ग को समझूँगी॥28॥

यदि कलंकिता हुई कीर्ति तो मुँह कैसे दिखलाऊँगी।
जीवनधन पर उत्सर्गित हो जीवन धन्य बनाऊँगी॥
है लोकोत्तर त्याग आपका लोकाराधन है न्यारा।
कैसे सम्भव है कि वह न हो शिरोधार्य मेरे द्वारा॥29॥

विरह-वेदनाओं से जलती दीपक सम दिखलाऊँगी।
पर आलोक-दान कर कितने उर का तिमिर भगाऊँगी॥
बिना बदन अवलोके ऑंखें ऑंसू सदा बहाएँगी।
पर मेरे उत्प्त चित्त को सरस सदैव बनाएँगी॥30॥