भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शबनम / बशीर भद्रवाही

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:12, 19 अप्रैल 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बशीर भद्रवाही |अनुवादक=पृथ्वीना...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रेमियों ने रात भर की साधना
चाँद चलते आसमाँ पर थक गया
भर गए तारक गगन पर ज्यों उसाँस
आ गया ज्यों याद तम को
रोशनी से पुर हुआ-सा आसमान
लो प्रभावित हो गई-
छितरा दिए-
मोती किसी ने आज फिर

फूल कहता-
अश्रुकण मैंने बहाए
परितोषक मुझे ही चाहिए
यह मेरा ही भेद
कहता गुलसिताँ
ऋतुराज उठ बैठा कुपित-सा
और हँसने लगा
श्रम मेरा हर माथ पर श्रमकण सजा
मैंने ही मोती सजाए-
पाँखुरी पर देख लो
कौन है जो सूक्ष्मता को और मति को देखना
मुझ-सा दिल होता किसी का-
इस जहाँ में देख लो
हाती मुझ जैसी-
किन्हीं सीनों की आँख
दाद देते वे बहुत सुकुमार भेदों की स्वयं
कह रहा साक़ी कि मैंने ही-
फूलों को पिलाई है शराब
आ गई जाने कहाँ से झूमती-सी ख़ुशबुएँ
प्रात का वातास उनके गले मिलते-सा रहा
धर दिए मरहम के फाहे-
मैंने गुलेलाला के दाह पर
आश-सी जागी दिलों में नर्सिसों को फिर वही
पंछियों के बोल फिर-
आर्द्र थे होने लगे
एक अर्से बाद-
शीतलता थी लगी छाने यहाँ

सूर्य ने सोचा
भला मैं ही पीछे क्यों रहूँ
निकल आया वह कि जैसे
पर्वतों को चूमता
और धीरे-से विश्व के
गिर्द घूमने लग गया
तपती धूप का चपेटा भी ले के आया-
हड़बड़ी में वह यहाँ
ओस घबराई और छुटी कँपकँपी
बादलों बिन वज्र गिरता-
प्रेमियों को दिख गया
नज़्में-ग़ज़लें फिर से-
शायर लिखने लगे
प्राण शबनम के निकले
जैसे कभी जन्मी न थी
जल वह खुद हाके बेचारी
प्यासी-की-प्यासी रह गई

सिन्धु ने इक सीप में-
एक क़तरे को गहा
सूर्य ने ढूँढ़ा बहुत
पर मिल न पाई सफलता
बूँद निकली अंत में-
बन एक मोती चमकता
तूफ़ाँ समन्दर के कि खुद
इसके रक्षक बन गए
है यही संकल्प
इसको ही कहते ज़िन्दगी।