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शांतिपान / मुकेश निर्विकार

रसपान और जलपान की तरह ही
एक होता है शांतिपान
जिसके लिए तड़पती है
हमारी आत्मा, हरपल
कलियुग की सार्वजनीन, सर्वव्यापी अराजकता और
अशांति में तो/और भी|

अपने अधाये पेट और तृप्त रसना
के बावजूद/मैं सदा तरसता हूँ
सुकून और शांति के लिए|


क्षमायाचना की तरह
एक शांतियाचना भी होती है
मैं कुदरत से निरंतर शांतियाचना
करता हूँ:
हे प्रभो! सुख-शांति दो
तृप्ति भर! अन्दर तक सोख सके
मेरी अतृप्त आत्मा जिसे!