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शिकंजे / मुक्ता

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वह औरत चौखट से बाहर निकली...शहर में अनगिनत शिकंजे हैं उसके घूँघट हटाते ही तड़तड़ाईं थीं तमाम बिजलियाँ हर शिकंजा उल्टा लटका हुआबिजलियों की ऊर्जा शिकंजों का अगर खाका बनाया जाएतो औरत से उसने बढ़ाये थे कदम निर्मम रास्तों की ओर मिलता-जुलता खाका बनता हैउसके सौंदर्य का सम्मोहन शनै: शनै: प्रवेश करता दरअसल शिकंजे के अंदर औरत है रगों में या औरत के हाथ में अंदर शिकंजा, यह कहना मुश्किल है इकतारा अदृश्य इकतारा, जिसके तार बजते रहतें हैं चहुं ओर उसके श्रम अपने उलटे लटके घोंसले के स्पंदन से ध्वनियाँ दिशाएँ पाती हैं साथ चक्कर लगाती है बया बया को मरते हुए किसी ने नहीं देखा औरत बया की उँगलियाँ कमजोर होने लगी हैं असाध्य रोग से तरह मरती है औरत अपने घर के साथ इकतारे प्रार्थना के स्वर होने लगे हैं गुम लिए नहीं उठते हाथ मरती हुई औरत के लिए औरत ने पैरों को जोड़ लिया है हाथों से,स्वयं तोड़ने पड़ते हैं शिकंजे पीठ को खंभों खुली हवा में बदल दिया है और मजबूती से थाम लिया है इकतारा पीढ़ियों को सौपने सांस लेने के लिए।
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