भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शिकंजे / मुक्ता

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शहर में अनगिनत शिकंजे हैं
हर शिकंजा उल्टा लटका हुआ
शिकंजों का अगर खाका बनाया जाए
तो औरत से मिलता-जुलता खाका बनता है
दरअसल शिकंजे के अंदर औरत है
या औरत के अंदर शिकंजा, यह कहना मुश्किल है
अपने उलटे लटके घोंसले के साथ चक्कर लगाती है बया
बया को मरते हुए किसी ने नहीं देखा
बया की तरह मरती है औरत अपने घर के साथ
प्रार्थना के लिए नहीं उठते हाथ मरती हुई औरत के लिए
औरत को स्वयं तोड़ने पड़ते हैं शिकंजे
खुली हवा में सांस लेने के लिए।