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सतपुरुस रतन / हरगोविन्द सिंह

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ऊ देस धन्न, वा भूम धन्न, औतरे जहाँ सतपुरुष रतन,
जन-मानस-निधि, धरती के धन।

सबके सुख के लानें जिननें
निज कौ सुख-बैभौ त्याग दओ,
धरती के भाग जगाबे खें,
बैकुंठउ सें बैराग लओ।

परहित में जिननें तपा तपे
झेले बरसा, आँधी, हिमार,
परदुख में नैनूँ-से पिघले
ज उतरे बनकै मंग-धार।

जिनको संगत में डरो-परो बन गओ गिलारौ लौ चन्दन,
बन गईं रपरियाँ नन्दन बन।

दिखकै समाज को दुरगत जे
व्याकुल हो बिलख-बिलख रोए,
मानुस कौ पतन जिन्हें अखरी
जे रहे जगत, जब सब सोए;

सूलन की सेजें अँगया कै
मंगल-चौके नित रहे रचत,
रह गए अकेले, पै न झुके
पी गए हलाहल हँसत-हँसत;

भर गए जगत में नई जोत, आहुति-सी अरपन कर तन-मन।
उनसें को कैसें होत उरिन?

आगम की कूँख जलम जिननें
अन्यायी की रस्ताा छेड़ी,
बौछार जुलम जल्लादी की
बलिदानी बाँहन पै एड़ी;

गजरा न गुलामी के पहिरे
फाँसी कौ फंदा चूम लओ,
जिनकी भसमी की छाप अमिट
रच गई अमर इतिहास नओ।

जिनके पद-चिन्हन की धूरा, बन क्रान्ति धँसी खोरन-खोरन,
ऊँघत ज्वानी खें झकझोरन।

मैरा सें लैकै महलन लौ
झनकार उठत जिनकी बानी,
पाखान हिएउ के सोतन सें
रसयात नेह-करुना-घानी।

जिनके बोलन की डोर पकर
बज उठत बाँसुरी-रमतूला,
रस-रँग बरसत झोपड़ियन से
निकरत बन राजकुँवर दूला;

जग जात जननि के रखवारे, करतीं रनभेरीं घनन-घनन;
जुग-साके गूँजत घरन-घरन।
ऊ देस धन्न वा भूम धन्न,
औतरे जहाँ सतपुरुस रतन।