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सन्नाटा पसरा ऑंगन में / एक बूँद हम / मनोज जैन 'मधुर'

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बहुत बुरे हालात हुए हैं
पुरखों वाले गॉंव के

नहीं जड़ों को कोई देता
अपनेपन की खाद
घर का बूढ़ा बरगद झेले
एकाकी अवसाद
छाले रिस नासूर हुए हैं
पगडंडी के पाँव के

चौपालों पर डटा हुआ है
विज्ञापन का प्रेत
धीर-धीरे डूब रहे हैं
यहाँ कर्ज में खेत
बाँट रही घर-घर की मॅंहगाई
परचे रोज तनाव के

नई फसल की आँखों में है
‘बॉलीवुड‘ की चाल
नहीं सुनाता बोध कथाएँ
विक्रम को बेताल
टूट रहे हैं रिश्ते-नाते
यहाँ धूप से छॉंव के

सन्नाटा पसरा आँगन में
दीवारों पर दर्द
हर चौखट पर टॅंगी हुई है
भूख प्यास की फर्द
नहीं सुनाई देते अब तो
मगरे से सुर कॉव के