भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सन्नाटा पसरा ऑंगन में / एक बूँद हम / मनोज जैन 'मधुर'

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:32, 29 जनवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनोज जैन 'मधुर' |अनुवादक= |संग्रह=ए...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत बुरे हालात हुए हैं
पुरखों वाले गॉंव के

नहीं जड़ों को कोई देता
अपनेपन की खाद
घर का बूढ़ा बरगद झेले
एकाकी अवसाद
छाले रिस नासूर हुए हैं
पगडंडी के पाँव के

चौपालों पर डटा हुआ है
विज्ञापन का प्रेत
धीर-धीरे डूब रहे हैं
यहाँ कर्ज में खेत
बाँट रही घर-घर की मॅंहगाई
परचे रोज तनाव के

नई फसल की आँखों में है
‘बॉलीवुड‘ की चाल
नहीं सुनाता बोध कथाएँ
विक्रम को बेताल
टूट रहे हैं रिश्ते-नाते
यहाँ धूप से छॉंव के

सन्नाटा पसरा आँगन में
दीवारों पर दर्द
हर चौखट पर टॅंगी हुई है
भूख प्यास की फर्द
नहीं सुनाई देते अब तो
मगरे से सुर कॉव के