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सपने / रमेश तैलंग

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झूठे-सच्चे कैसे भी हों
हमें लुभाते सपने।
बंद रहे खिड़की आँखों की
पर आ जाते सपने।

पंख लगाकर आसमान पर
हमें उड़ाते सपने।
और किसी अनजानी दुनिया
में ले जाते सपने।

छोटी-छोटी बातों पर हैं
हमें हँसाते सपने।
डर के मारे कभी अचानक
नींद उड़ाते सपने।

खुल जाएँ आँखें तो
छूमंतर हो जाते सपने।
कितनी काशिश कर लो
फिर भी हाथ न आते सपने।