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सभी तरफ है अँधेरा, कहीं भी कोई नहीं / गुलाब खंडेलवाल

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सभी तरफ है अँधेरा, कहीं भी कोई नहीं
भरम ही मन का है मेरा, कहीं भी कोई नहीं

नहीं निशान भी तेरा, कहीं भी कोई नहीं
घिरा है घेरे में घेरा, कहीं भी कोई नहीं

वहाँ पहाड़ की घाटी से, आधी रात के बाद
ये किसने फिर मुझे टेरा! कहीं भी कोई नहीं

चले है खोजने किसको ये खोजनेवाले!
पता तो बस यही तेरा--'कहीं भी कोई नहीं'

कहाँ है रौशनी तारों की, चाँद, सूरज की
अँधेरा और अँधेरा, कहीं भी कोई नहीं

कहाँ जुडी थीं सभाएँ? कहाँ थे उनसे मिले?
कहाँ था अपना बसेरा? कहीं भी कोई नहीं

नहीं रहे हैं वही वह कि मैं ही मैं न रहा!
न साँझ वह न सवेरा, कहीं भी कोई नहीं

भले ही साँप यह रस्सी में आ रहा है नज़र
न बीन है, न सँपेरा, कहीं भी कोई नहीं

अभी तो छांह-सी उतरी थी एक दिल में, मगर
नज़र को मैंने जो फेरा, कहीं भी कोई नहीं

न बाग़ है, नहीं भौंरे, न तितलियाँ, न गुलाब
उठा वसंत का डेरा, कहीं भी कोई नहीं