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साँच / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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मिथ्या-परे न पाप है, साँच-रे नहि धर्म।
धरनी साँचो जो कहै, ताहि लागे कर्म॥1॥

धरनी साँचे जो भये, झूठे संग न जाँहि।
पंचामृत को परिहरैं, रुखा टूका खांहि॥2॥

जो जन जग में झूठ तजि, साँचे व्रत गहि लेय।
धरनी ताके चरण पर, शीश अपनो देय॥3॥

पर-निन्दा पर-धन तजै, पर-नारी नहि चाव।
साँच कहै सहजै रहै, धरनी वन्दे पाव॥4॥

मृषा कहै नहि जानिके, साँच न धरै छपाय।
धरनी सोजन निर्मला, कोइ देखो अजमाय॥5॥