Changes

उर्मि हूँ मैं इस भवार्णव की नई!
आये एक बार प्रिय बोले--’एक बात कहूँ,
:विषय परन्तु गोपनीय सुनों कान में!’
मैं ने कहा-’कौन यहाँ?’ बोले-’प्रिये, चित्र तो हैं;
:सुनते हैं वे भी राजनीति के विधान में।’
लाल किये कर्णमूल होंठों से उन्होंने कहा-
:’क्या कहूँ सगद्गद हूँ, मैं भी छद-दान में;
कहते नहीं हैं , करते हैं कृती!’ सजनी मैं
:खीझ के भी रीझ उठी उस मुस्कान में!
 
:::मेरे चपल यौवन-बाल!
अचल अंचल में पड़ा सो, मचल कर मत साल।
बीतने दे रात, होगा सुप्रभात विशाल,
खेलना फिर खेल मन के पहन के मणि-माल।
पक रहे हैं भाग्य-फल तेरे सुरम्य-रसाल,
डर न, अवसर आ रहा है, जा रहा है काल।
मन पुजारी और तन इस दुःखिनी का थाल,
भेंट प्रिय के हेतु उसमें एक तू ही लाल!
 
यही वाटिका थी, यही थी मही,
यही चन्द्र था, चाँदनी थी यही।
यहीं वल्लकी मैं लिए गोद में
उसे छेड़ती थी महा मोद में।
यही कण्ठ था, कौन-सा गान था?-
’न था दुर्ग तू, मानिनी-मान था!’
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits