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सिवादे-शामे-ग़म से रूह थर्राती है क़ालिब में / नज़र लखनवी
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16:44, 8 सितम्बर 2009
रसाई आशियाँ तक किस तरह बेबालो-पर होगी॥
फ़क़त इक साँस बाक़ी है,
मरिज़े
मरीज़े
-हिज्र के तन में।
यह
ये
काँटा भी निकल जाये तो राहत से बसर होगी॥
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द्विजेन्द्र द्विज
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