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सिवादे-शामे-ग़म से रूह थर्राती है क़ालिब में / नज़र लखनवी

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सिवादे-शामे-ग़म<ref>ग़म रूपी संध्या</ref> से रूह थर्राती है क़ालिब<ref>शरीर</ref> में।
नहीं मालूम क्या होगा, जो इस शब की सहर होगी॥

क़फ़स से छूटकर पहुँचे न हम, दीवारे-गुलशन तक।
रसाई आशियाँ तक किस तरह बेबालो-पर होगी॥

फ़क़त इक साँस बाक़ी है, मरीज़े-हिज्र के तन में।
ये काँटा भी निकल जाये तो राहत से बसर होगी॥

शब्दार्थ
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