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स्वर्ण रश्मि नैनों के द्वारे<br>
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सो गये हैं अब सारे तारे<br>
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चाँद ने भी ली विदाई<br>
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देखो एक नयी सुबह है आई.<br>
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मचलते पंछी पंख फैलाते<br>
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ठंडे हवा के झोंके आते<br>
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नयी किरण की नयी परछाई<br>
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देखो एक नयी सुबह है आई. <br>
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कहीं ईश्वर के भजन हैं होते<br>
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लोग इबादत में मगन हैं होते<br>
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खुल रही हैं अँखियाँ अल्साई<br>
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देखो एक नयी सुबह है आई. <br>
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मोहक लगती फैली हरियाली<br>
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होकर चंचल और मतवाली<br>
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कैसे कुदरत लेती अंगड़ाई<br>
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देखो एक नयी सुबह है आई. <br>
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फिर आबाद हैं सूनी गलियाँ<br>
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खिल उठी हैं नूतन कलियाँ<br>
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फूलों ने है ख़ुश्बू बिखराई<br>
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देखो एक नयी सुबह है आई. <br>
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आनंद गुप्ता<br>
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- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -        <br>      कवि - अहमद फ़राज़  / <br>
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बुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़ो शब के गये<br>
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के अब तलक नही पलटे हैं लोग कब के गये//<br>
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करेगा कौन तेरी बेवफ़ाइयों का गिला <br>
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यही है रस्मे ज़माना तो हम भी अब के गये //<br>
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मगर किसी ने हमे हमसफ़र नही जाना <br>
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ये और बात के हम साथ साथ सब के गये //<br>
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अब आये हो तो यहाँ  क्या है देखने के लिये <br>
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ये शहर कब से है वीरां वो लोग कब के गये //<br>
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गिरफ़्ता दिल थे मगर हौसला नही हारा <br>
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गिरफ़्ता दिल हैं मगर हौसले भी अब के गये //<br>
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तुम अपनी शम्ऐ-तमन्ना को रो रहे हो "फ़राज़" <br>
 +
इन आँधियों मे तो प्यारे चिराग सब के गये//<br>
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---  ---    प्रेषक - संजीव द्विवेदी ------<br>
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कवि - गुलाम मुर्तुजा राही
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छिप के कारोबार करना चाहता है
  
 +
घर को वो बाज़ार करना चाहता है।
  
महावीर प्रसाद द्विवेदी की कविता का शीर्षक आर्य्य-भूमि है न कि आर्य-भूमि ।
 
यदि जिसने सुधारा है उस महोदय के पास  महावीर प्रसाद द्विवेदी की वह कविता है तो फोटो कापी भेज दें । अन्यथा कृपया सुधार लें । मेरे पास द्विवेदी जी की वह किताब है जिसमें आर्य्य शब्द है न कि आर्य । हमें ऐसे महान रचनाकारों द्वारा दिये गये शीर्षक नहीं बदलना चाहिए । कृपया इसे अन्यथा न लें टीम के कर्ता-धर्ता गण क्योंकि मेरे पास कहने के लिए जगह और कहाँ है ? आप इसका परीक्षण करायें । 
 
जयप्रकाश मानस
 
  
0 मुख्य संपादक जी, कृपया "कवियों की सूची" नामक पेज में कवि उमाकांत मालविय के स्थान पर उमाकांत मालवीय सुधार लेवें । (जयप्रकाश मानस)
+
आसमानों के तले रहता है लेकिन
  
 +
बोझ से इंकार करना चाहता है ।
  
  
 +
चाहता है वो कि दरिया सूख जाये
  
0  कुंवर नारायण की कविताएं
+
रेत का व्यौपार करना चाहता है ।
  
'''उत्केंद्रित ?'''
 
  
मैं ज़िंदगी से भागना नहीं
+
खींचता रहा है कागज पर लकीरें
  
उससे जुड़ना चाहता हूँ -
+
जाने क्या तैयार करना चाहता है
  
उसे झकझोरना चाहता हूँ
 
  
उसके काल्पनिक अक्ष पर
+
पीठ दिखलाने का मतलब है कि दुश्मन
  
ठीक उस जगह जहाँ वह
+
घूम कर इक वार करना चाहता है ।
  
सबसे अधिक बेध्य हो कविता द्वारा ।
 
  
 +
दूर की कौडी उसे लानी है शायद
  
 +
सरहदों को पार करना चाहता है ।
  
उस आच्छादित शक्ति-स्त्रोत को
 
  
सधे हुए प्रहारों द्वारा
 
  
पहले तो विचलित कर
+
  प्रेषक - संजीव द्विवेदी -
  
फिर उसे कीलित कर जाना चाहता हूँ
+
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अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम।
 +
दास मलूका कह गये, सबके दाता राम।।
  
नियतिबद्ध परिक्रमा से मोड़ कर
 
  
पराक्रम की धुरी पर
+
कविता का शीर्षक
 +
'''फुर्सत नहीं है'''
  
एक प्रगति-बिन्दु
+
कवि '''पवन चन्दन'''
 +
प्रेषक अविनाश वाचस्पति
  
यांत्रिकता की अपेक्षा
+
हम बीमार थे
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यार-दोस्त श्रद्धांजलि
 +
को तैयार थे
 +
रोज़ अस्पताल आते
 +
हमें जीवित पा
 +
निराश लौटे जाते
  
मनुष्यता की ओर ज़्यादा सरका हुआ......
+
एक दिन हमने
000000
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खुद ही विचारा
 +
और अपने चौथे
 +
नेत्र से निहारा
 +
देखा
 +
चित्रगुप्त का लेखा
  
'''जन्म-कुंडली'''
+
जीवन आउट ऑफ डेट हो गया है
 +
शायद
 +
यमराज लेट हो गया है
 +
या फिर
 +
उसकी नज़र फिसल गई
 +
और हमारी मौत
 +
की तारीख निकल गई
 +
यार-दोस्त हमारे न मरने पर
 +
रो रहे हैं
 +
इसके क्या-क्या कारण हो रहे हैं
  
फूलों पर पड़े पड़े अकसर मैंने
+
किसी ने कहा
 +
यमराज का भैंसा
 +
बीमार हो गया होगा
 +
या यम
 +
ट्रेन में सवार हो गया होगा
 +
और ट्रेन हो गई होगी लेट
 +
आप करते रहिए
 +
अपने मरने का वेट
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हो सकता है
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एसीपी में खड़ी हो
 +
या किसी दूसरी पे चढ़ी हो
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और मौत बोनस पा गई हो
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आपसे पहले
 +
औरों की आ गई हो
  
 +
जब कोई
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रास्ता नहीं दिखा
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तो हमने
 +
यम के पीए को लिखा
 +
सब यार-दोस्त
 +
हमें कंधा देने को रुके हैं
 +
कुछ तो हमारे मरने की
 +
छुट्टी भी कर चुके हैं
 +
और हम अभी तक नहीं मरे हैं
 +
सारे
 +
इस बात से डरे हैं
 +
कि भेद खुला तो क्या करेंगे
 +
हम नहीं मरे
 +
तो क्या खुद मरेंगे
 +
वरना बॉस को
 +
क्या कहेंगे
  
ओस के बारे में सोचा है –
+
इतना लिखने पर भा
 +
कोई जवाब नहीं आया
 +
तो हमने फ़ोन घुमाया
 +
जब मिला फ़ोन
 +
तो यम बोला. . .कौन?
 +
हमने कहा मृत्युशैय्या पर पड़े हैं
 +
मौत की
 +
लाइन में खड़े हैं
 +
प्राणों के प्यासे, जल्दी आ
 +
हमें जीवन से
 +
छुटकारा दिला
  
किरणों की नोकों से ठहराकर
+
क्या हमारी मौत
 +
लाइन में नहीं है
 +
या यमदूतों की कमी है
  
ज्योति-बिन्दु फूलों पर
+
नहीं
 +
कमी तो नहीं है
 +
जितने भरती किए
 +
सब भारत की तक़दीर में हैं
 +
कुछ असम में हैं
 +
तो कुछ कश्मीर में हैं
  
किस ज्योतिर्विद ने
+
जान लेना तो ईज़ी है
 +
पर क्या करूँ
 +
हरेक बिज़ी है
  
इस जगमग खगोल की  
+
तुम्हें फ़ोन करने की ज़रूरत नहीं है
 +
अभी तो हमें भी
 +
मरने की फ़ुरसत नहीं है
  
जटिल जन्म-कुंडली बनायी है ?
+
मैं खुद शर्मिंदा हूँ
 +
मेरी भी
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मौत की तारीख
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निकल चुकी है
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मैं भी अभी ज़िंदा हूँ।
  
फिर क्यों निःश्लेष किया
+
...
 +
कविता का शीर्षक
 +
'''मज़ा'''
  
अलंकरण पर भर में ?
+
कवि  '''अविनाश वाचस्पति'''
  
एक से शुन्य तक
+
आज क्या हो रहा है
 +
और क्या होने वाला है?
  
किसकी यह ज्यामितिक सनकी जमुहाई है ?
+
इसे देखकर
 +
जान-समझकर
 +
परेशान हैं कुछ
 +
और
 +
खुश होने वाले भी अनेक।
  
 +
मज़े उन्हीं के हैं
 +
जिन पर इन चीज़ों का
 +
असर नहीं पड़ता।
  
 +
वे जानते हैं
 +
जो होना है
 +
वो तो होना ही है
 +
और हो भी रहा है
 +
तो फिर
 +
बेवजह बेकार की
 +
माथा-पच्ची करने से
 +
क्या लाभ?
  
और  फिर उनको भी सोचा है –
 
  
वृक्षों के तले पड़े
+
संजय सेन सागर
  
फटे-चिटे पत्ते-----
+
मां तुम कहां हो
  
उनकी अंकगणित में
+
मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है
  
कैसी यह उधेडबुन ?
+
वो तेरा सीने से लगाना,
  
हवा कुछ गिनती हैः
 
  
गिरे हुए पत्तों को कहीं से उठाती
 
  
और कहीं पर रखती है ।
 
  
कभी कुछ पत्तों को डालों से तोड़कर
+
आंचल में सुलाना याद आता है।
  
यों ही फेंक देती है मरोड़कर ..........।
+
क्यों तुम मुझसे दूर गई,
  
  
  
कभी-कभी फैलाकर नया पृष्ठ – अंतरिक्ष-
 
  
गोदती चली जाती.....वृक्ष......वृक्ष......वृक्ष
+
किस बात पर तुम रूठी हो,
00000000000
+
  
 +
मैं तो झट से हंस देता था।
  
'''अबकी बार लौटा तो'''
 
  
  
  
अबकी बार लौटा तो  
+
पर तुम तो  
  
बृहत्तर लौटूँगा
+
अब तक रूठी हो।
  
चेहरे पर लगाये नोकदार मूँछें नहीं
 
  
कमर में बाँधें लोहे की पूँछे नहीं
 
  
जगह दूँगा साथ चल रहे लोगों को
 
  
तरेर कर न देखूँगा उन्हें
+
रोता है हर पल दिल मेरा,
  
भूखी शेर-आँखों से
+
तेरे खो जाने के बाद,
  
  
  
अबकी बार लौटा तो
 
  
मनुष्यतर लौटूँगा
+
गिरते हैं हर लम्हा आंसू ,
  
घर से निकलते
+
तेरे सो जाने के बाद।
  
सड़को पर चलते
 
  
बसों पर चढ़ते
 
  
ट्रेनें पकड़ते
 
  
जगह बेजगह कुचला पड़ा
+
मां तेरी वो प्यारी सी लोरी ,
  
पिद्दी-सा जानवर नहीं
+
अब तक दिल में भीनी है।
  
  
  
अगर बचा रहा तो
 
  
कृतज्ञतर लौटूँगा
+
इस दुनिया में न कुछ अपना,
  
 +
सब पत्थर दिल बसते हैं,
  
  
अबकी बार लौटा तो
 
  
हताहत नहीं
 
  
सबके हिताहित को सोचता
+
एक तू ही सत्य की मूरत थी,
  
पूर्णतर लौटूँगा
+
तू भी तो अब खोई है।
00000000000
+
  
  
'''घर पहुँचना'''
 
  
  
 +
आ जाओ न अब सताओ,
  
हम सब एक सीधी ट्रेन पकड़ कर
+
दिल सहम सा जाता है,
  
अपने अपने घर पहुँचना चाहते
 
  
  
  
हम सब ट्रेनें बदलने की
+
अंधेरी सी रात में
  
झंझटों से बचना चाहते
+
मां तेरा चेहरा नजर आता है।
  
  
  
हम सब चाहते एक चरम यात्रा
 
  
और एक परम धाम
+
आ जाओ बस एक बार मां
  
 +
अब ना तुम्हें सताउंगा,
  
  
हम सोच लेते कि यात्राएँ दुखद हैं
 
  
और घर उनसे मुक्ति
 
  
 +
चाहे निकले
  
 +
जान मेरी अब ना तुम्हें रूलाउंगा।
  
सचाई यूँ भी हो सकती है
 
  
कि यात्रा एक अवसर हो
 
  
और घर एक संभावना
 
  
 +
आ जाओ ना मां तुम,
  
 +
मेरा दम निकल सा जाता है।
  
ट्रेनें बदलना
 
  
विचार बदलने की तरह हो
 
  
और हम सब जब जहाँ जिनके बीच हों
 
  
वही हो
+
हर लम्हा इसी तरह ,
  
घर पहुँचना
+
मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है।
00000000000
+
  
कविः कुंवर नारायण
 
  
प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस
+
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12:14, 2 जून 2010 के समय का अवतरण


कृपया अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न भी अवश्य पढ़ लें

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*~*~*~*~*~*~* यहाँ से नीचे आप कविताएँ जोड़ सकते हैं ~*~*~*~*~*~*~*~*~


स्वर्ण रश्मि नैनों के द्वारे
सो गये हैं अब सारे तारे
चाँद ने भी ली विदाई
देखो एक नयी सुबह है आई.

मचलते पंछी पंख फैलाते
ठंडे हवा के झोंके आते
नयी किरण की नयी परछाई
देखो एक नयी सुबह है आई.

कहीं ईश्वर के भजन हैं होते
लोग इबादत में मगन हैं होते
खुल रही हैं अँखियाँ अल्साई
देखो एक नयी सुबह है आई.

मोहक लगती फैली हरियाली
होकर चंचल और मतवाली
कैसे कुदरत लेती अंगड़ाई
देखो एक नयी सुबह है आई.

फिर आबाद हैं सूनी गलियाँ
खिल उठी हैं नूतन कलियाँ
फूलों ने है ख़ुश्बू बिखराई
देखो एक नयी सुबह है आई.


आनंद गुप्ता
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
कवि - अहमद फ़राज़ /
बुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़ो शब के गये
के अब तलक नही पलटे हैं लोग कब के गये//
करेगा कौन तेरी बेवफ़ाइयों का गिला
यही है रस्मे ज़माना तो हम भी अब के गये //
मगर किसी ने हमे हमसफ़र नही जाना
ये और बात के हम साथ साथ सब के गये //
अब आये हो तो यहाँ क्या है देखने के लिये
ये शहर कब से है वीरां वो लोग कब के गये //
गिरफ़्ता दिल थे मगर हौसला नही हारा
गिरफ़्ता दिल हैं मगर हौसले भी अब के गये //
तुम अपनी शम्ऐ-तमन्ना को रो रहे हो "फ़राज़"

इन आँधियों मे तो प्यारे चिराग सब के गये//

--- --- प्रेषक - संजीव द्विवेदी ------
- - - -- --- --- --- ---- ----- ------ ---- ---


कवि - गुलाम मुर्तुजा राही

छिप के कारोबार करना चाहता है

घर को वो बाज़ार करना चाहता है।


आसमानों के तले रहता है लेकिन

बोझ से इंकार करना चाहता है ।


चाहता है वो कि दरिया सूख जाये

रेत का व्यौपार करना चाहता है ।


खींचता रहा है कागज पर लकीरें

जाने क्या तैयार करना चाहता है ।


पीठ दिखलाने का मतलब है कि दुश्मन

घूम कर इक वार करना चाहता है ।


दूर की कौडी उसे लानी है शायद

सरहदों को पार करना चाहता है ।


 प्रेषक - संजीव द्विवेदी -

- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -

अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे ना काम। दास मलूका कह गये, सबके दाता राम।।


कविता का शीर्षक फुर्सत नहीं है

कवि पवन चन्दन प्रेषक अविनाश वाचस्पति

हम बीमार थे यार-दोस्त श्रद्धांजलि को तैयार थे रोज़ अस्पताल आते हमें जीवित पा निराश लौटे जाते

एक दिन हमने खुद ही विचारा और अपने चौथे नेत्र से निहारा देखा चित्रगुप्त का लेखा

जीवन आउट ऑफ डेट हो गया है शायद यमराज लेट हो गया है या फिर उसकी नज़र फिसल गई और हमारी मौत की तारीख निकल गई यार-दोस्त हमारे न मरने पर रो रहे हैं इसके क्या-क्या कारण हो रहे हैं

किसी ने कहा यमराज का भैंसा बीमार हो गया होगा या यम ट्रेन में सवार हो गया होगा और ट्रेन हो गई होगी लेट आप करते रहिए अपने मरने का वेट हो सकता है एसीपी में खड़ी हो या किसी दूसरी पे चढ़ी हो और मौत बोनस पा गई हो आपसे पहले औरों की आ गई हो

जब कोई रास्ता नहीं दिखा तो हमने यम के पीए को लिखा सब यार-दोस्त हमें कंधा देने को रुके हैं कुछ तो हमारे मरने की छुट्टी भी कर चुके हैं और हम अभी तक नहीं मरे हैं सारे इस बात से डरे हैं कि भेद खुला तो क्या करेंगे हम नहीं मरे तो क्या खुद मरेंगे वरना बॉस को क्या कहेंगे

इतना लिखने पर भा कोई जवाब नहीं आया तो हमने फ़ोन घुमाया जब मिला फ़ोन तो यम बोला. . .कौन? हमने कहा मृत्युशैय्या पर पड़े हैं मौत की लाइन में खड़े हैं प्राणों के प्यासे, जल्दी आ हमें जीवन से छुटकारा दिला

क्या हमारी मौत लाइन में नहीं है या यमदूतों की कमी है

नहीं कमी तो नहीं है जितने भरती किए सब भारत की तक़दीर में हैं कुछ असम में हैं तो कुछ कश्मीर में हैं

जान लेना तो ईज़ी है पर क्या करूँ हरेक बिज़ी है

तुम्हें फ़ोन करने की ज़रूरत नहीं है अभी तो हमें भी मरने की फ़ुरसत नहीं है

मैं खुद शर्मिंदा हूँ मेरी भी मौत की तारीख निकल चुकी है मैं भी अभी ज़िंदा हूँ।

... कविता का शीर्षक मज़ा

कवि अविनाश वाचस्पति

आज क्या हो रहा है और क्या होने वाला है?

इसे देखकर जान-समझकर परेशान हैं कुछ और खुश होने वाले भी अनेक।

मज़े उन्हीं के हैं जिन पर इन चीज़ों का असर नहीं पड़ता।

वे जानते हैं जो होना है वो तो होना ही है और हो भी रहा है तो फिर बेवजह बेकार की माथा-पच्ची करने से क्या लाभ?


संजय सेन सागर

मां तुम कहां हो

मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है

वो तेरा सीने से लगाना,



आंचल में सुलाना याद आता है।

क्यों तुम मुझसे दूर गई,



किस बात पर तुम रूठी हो,

मैं तो झट से हंस देता था।



पर तुम तो

अब तक रूठी हो।



रोता है हर पल दिल मेरा,

तेरे खो जाने के बाद,



गिरते हैं हर लम्हा आंसू ,

तेरे सो जाने के बाद।



मां तेरी वो प्यारी सी लोरी ,

अब तक दिल में भीनी है।



इस दुनिया में न कुछ अपना,

सब पत्थर दिल बसते हैं,



एक तू ही सत्य की मूरत थी,

तू भी तो अब खोई है।



आ जाओ न अब सताओ,

दिल सहम सा जाता है,



अंधेरी सी रात में

मां तेरा चेहरा नजर आता है।



आ जाओ बस एक बार मां

अब ना तुम्हें सताउंगा,



चाहे निकले

जान मेरी अब ना तुम्हें रूलाउंगा।



आ जाओ ना मां तुम,

मेरा दम निकल सा जाता है।



हर लम्हा इसी तरह ,

मां मुझे तेरा चेहरा याद आता है।



.