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आर्य्य-भूमि

जहाँ हुए व्यास मुनि-प्रधान,

रामादि राजा अति कीर्तिमान।

जो थी जगत्पूजित धन्य-भूमि ,

वही हमारी यह आर्य्य- भूमि ।।

2

जहाँ हुए साधु हा महान्

थे लोग सारे धन-धर्म्मवान्।

जो थी जगत्पूजित धर्म्म-भूमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।


3

जहाँ सभी थे निज धर्म्म धारी,

स्वदेश का भी अभिमान भारी ।

जो थी जगत्पूजित पूज्य-भूमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।

4

हुए प्रजापाल नरेश नाना,

प्रजा जिन्होंने सुत-तुल्य जाना ।

जो थी जगत्पूजित सौख्य- भूमि ,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।

5

वीरांगना भारत-भामिली थीं,

वीरप्रसू भी कुल- कामिनी थीं ।

जो थ जगत्पूजित वीर- भूमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।


6

स्वदेश-सेवी जन लक्ष लक्ष,

हुए जहाँ हैं निज-कार्य्य दक्ष ।

जो थी जगत्पूजित कार्य्य-भूमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।

7

स्देश-कल्याण सुपुण्य जान,

जहाँ हुए यत्न सदा महान।

जो थी जगत्पूजित पुण्य भूमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।

8

न स्वार्थ का लेण जरा कहीं था,

देशार्थ का त्याग कहीं नहीं था।

जो थी जगत्पूजित श्रेष्ठ-भुमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।

9

कोई कभी धीर न छोड़ता था,

न मृत्यु से भी मुँह मोड़ता था।

जो थी जगत्पूजित धैर्य्य- भूमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।

10

स्वदेश के शत्रु स्वशत्रु माने,

जहाँ सभी ने शर-चाप ताने ।

जो थी जगत्पूजित शौर्य्य-भूमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।

11

अनेक थे वर्णे तथापि सारे

थे एकताबद्ध जहाँ हमारे

जो थी जगत्पूजित ऐक्य-भूमि,

वही हमारी यह आर्य भूमि ।।

12

थी मातृभूमि-व्रत-भक्ति भारी,

जहां हुए शुर यशोधिकारी ।

जो थी जगत्पूजित कीर्ति-भूमि,

वही हमारी यह आर्यभूमि ।।

13

दिव्यास्त्र विद्या बल, दिव्य यान,

छाया जहाँ था अति दिव्य ज्ञान ।

जो थी जगत्पूजित दिव्यभूमि,

वही हमारी यह आर्यभूमि ।।

14

नये नये देश जहाँ अनेक,

जीत गये थे नित एक एक ।

जो थी जगत्पूजित भाग्यभूमि,

वही हमारी यह आर्यभूमि ।।

15

विचार एसे जब चित्त आते,

विषाद पैदा करते, सताते ।

न क्या कभी देव दया करेंगे ?

न क्या हमारे दिन भी फिरेंगे ?


(अप्रैल, 1906 की सरस्वती में प्रकाशित )


कविता का नामः आर्यभूमि

कविः महावीर प्रसाद द्विवेदी

प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस 0000000


ग्राम्य जीवन


छोटे-छोटे भवन स्वच्छ अति दृष्टि मनोहर आते हैं

रत्न जटित प्रासादों से भी बढ़कर शोभा पाते हैं

बट-पीपल की शीतल छाया फैली कैसी चहुँ ओर है

द्विजगण सुन्दर गान सुनाते नृत्य कहीं दिखलाते मोर ।


शान्ति पूर्ण लघु ग्राम बड़ा ही सुखमय होता है भाई

देखो नगरों से भी बढ़कर इनकी शोभा अधिकाई

कपट द्वेष छलहीन यहाँ के रहने वाले चतुर किसान

दिवस विताते हैं प्रफुलित चित, करते अतिथि द्विजों का मान ।


आस-पास में है फुलवारी कहीं-कहीं पर बाग अनूप

केले नारंगी के तरुगण दिखालते हैं सुन्दर रूप

नूतन मीठे फल बागों से नित खाने को मिलते हैं ।

देने को फुलेस –सा सौरभ पुष्प यहाँ नित खिलते हैं।


पास जलाशय के खेतों में ईख खड़ी लहराती है

हरी भरी यह फसल धान की कृषकों के मन भाती है

खेतों में आते ये देखो हिरणों के बच्चे चुप-चाप

यहाँ नहीं हैं छली शिकारी धरते सुख से पदचाप


कभी-कभी कृषकों के बालक उन्हें पकड़ने जाते हैं

दौड़-दौड़ के थक जाते वे कहाँ पकड़ में आते हैं ।

बहता एक सुनिर्मल झरना कल-कल शब्द सुनाता है

मानों कृषकों को उन्नति के लिए मार्ग बतलाता है


गोधन चरते कैसे सुन्दर गल घंटी बजती सुख मूल

चरवाहे फिरते हैं सुख से देखो ये तटनी के फूल

ग्राम्य जनों को लभ्य सदा है सब प्रकार सुख शांति अपार

झंझट हीन बिताते जीवन करते दान धर्म सुखसार


कविता का नामः ग्राम्य जीवन

कविः प.(पद्मश्री)मुकुटधर पांडेय

प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस

टीपः कवि छायावाद कविता के जनक माने जाते हैं । स्वयं प्रसाद जी ने इन्हें छायवाद शब्द का प्रथम प्रयोक्ता माना था ।


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कुररी के प्रति


बता मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी की बात

पिछड़ा था तू कहाँ, आ रहा जो कर इतनी रात

निद्रा में जा पड़े कभी के ग्राम-मनुज स्वच्न्द

अन्य विग भी निज़ नीड़ों में सोते हैं सानन्द

इस नीरव घटिका में उड़ता है तू चिन्तत गात

पिछड़ा था तू कहाँ, हुई क्यों तुझको इतनी रात ?


देख किसी माया प्रान्तर का चित्रित चारु दुकूल ?

क्या तेरा मन मोहजाल में गया कहीं था भूल ?

क्या उसका सौन्दर्य-सुरा से उठा हृदय तव ऊब ?

या आशा की मरीचिका से छला गया तू खूब ?

या होकर दिग्भ्रान्त लिया था तूने पथ प्रतिकूल ?

किसी प्रलोभन में पड़ अथवा गया कहीं था भूल ?


अन्तरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत बिलाप ?

ऐसी दारुण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप ?

किसी गुप्त दुष्कृति की स्मृति क्या उठी हृदय में जाग

जला रही है तुझको अथवा प्रिय वियोग की आग ?

शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप ?

बता कौन सी व्यथा तुझे है, है किसका परिताप ?


यह ज्योत्सना रजनी हर सकती क्या तेरा न विषाद ?

या तुझको निज-जन्म भूमी की सता रही है याद ?

विमल व्योम में टँगे मनोहर मणियों के ये दीप

इन्द्रजाल तू उन्हें समझ कर जाता है न समीप

यह कैसा भय-मय विभ्रम है कैसा यह उन्माद ?

नहीं ठहरता तू, आई क्या तुझे गेह की याद ?


कितनी दूर कहाँ किस दिशि में तेरा नित्य निवास

विहग विदेशी आने का क्यों किया यहाँ आयास

वहाँ कौन नक्षत्र –वृन्द करता आलोक प्रदान ?

गाती है तटिनी उस भू की बता कौन सा गान ?

कैसा स्निग्ध्र समीरण चलता कैसी वहाँ सुवास

किया यहाँ आने का तूने कैसे यह आयास ?

(सरस्वती, जुलाई, 1920)


कविता का नामः कुर्री के प्रति

कविः प.(पद्मश्री)मुकुटधर पांडेय

प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस

टीपः कवि छायावाद कविता के जनक माने जाते हैं । स्वयं प्रसाद जी ने इन्हें छायवाद शब्द का प्रथम प्रयोक्ता माना था ।

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बद्र की ग़ज़लें


एक


कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बंधा हुआ ।

वो ग़ज़ल का लहजा नया-नया, न कहा हुआ न सुना हुआ ।


जिसे ले गई अभी हवा, वे वरक़ था दिल की किताब का,

कहीँ आँसुओं से मिटा हुआ, कहीं, आँसुओं से लिखा हुआ ।


कई मील रेत को काटकर, कोई मौज फूल खिला गई,

कोई पेड़ प्यास से मर रहा है, नदी के पास खड़ा हुआ ।


मुझे हादिसों ने सजा-सजा के बहुत हसीन बना दिया,

मिरा दिल भी जैसे दुल्हन का हाथ हो मेंहदियों से रचा हुआ ।


वही शहर है वही रास्ते, वही घर है और वही लान भी,

मगर इस दरीचे से पूछना, वो दरख़्त अनार का क्या हुआ ।


वही ख़त के जिसपे जगह-जगह, दो महकते होटों के चाँद थे,

किसी भूले बिसरे से ताक़ पर तहे-गर्द होगा दबा हुआ ।


दो


सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा ।

इतना मत चाहो उसे, वो बेवफ़ा हो जाएगा ।


हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है,

जिस तरफ़ भी चल पड़ेगे, रास्ता हो जाएगा ।


कितना सच्चाई से, मुझसे ज़िंदगी ने कह दिया,

तू नहीं मेरा तो कोई, दूसरा हो जाएगा ।


मैं खूदा का नाम लेकर, पी रहा हूँ दोस्तो,

ज़हर भी इसमें अगर होगा, दवा हो जाएगा ।


सब उसी के हैं, हवा, ख़ुश्बु, ज़मीनो-आस्माँ,

मैं जहाँ भी जाऊँगा, उसको पता हो जाएगा ।


तीन


हमारा दिल सबरे का सुनहरा जाम हो जाए ।

चराग़ों की तरह आँखें जलें, जब शाम हो जाए ।


मैं ख़ुद भी अहतियातन, उस गली से कम गुजरता हूँ,

कोई मासूम क्यों मेरे लिए, बदनाम हो जाए ।


अजब हालात थे, यूँ दिल का सौदा हो गया आख़िर,

मुहब्बत की हवेली जिस तरह नीलाम हो जाए ।


समन्दर के सफ़र में इस तरह आवाज़ दो हमको,

हवायें तेज़ हों और कश्तियों में शाम हो जाए ।

मुझे मालूम है उसका ठिकाना फिर कहाँ होगा,

परिंदा आस्माँ छूने में जब नाकाम हो जाए ।


उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो,

न जाने किस गली में, ज़िंदगी की शाम हो जाए ।


बशीर बद्र

जयप्रकाश मानस 0000000000


नवीन कल्पना करो


निज राष्ट्र के शरीर के सिंगार के लिए तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो,

             तुम कल्पना करो ।


अब देश है स्वतंत्र, मेदिनी स्वतंत्र है

मधुमास है स्वतंत्र, चाँदनी स्वतंत्र है

हर दीप है स्वतंत्र, रोशनी स्वतंत्र है

अब शक्ति की ज्वलंत दामिनी स्वतंत्र है

लेकर अनंत शक्तियाँ सद्य समृद्धि की-

तुम कामना करो, किशोर कामना करो,

                 तुम कामना करो ।  


तन की स्वतंत्रता चरित्र का निखार है

मन की स्वतंत्रता विचार की बहार है

घर की स्वतंत्रता समाज का सिंगार है

पर देश की स्वतंत्रता अमर पुकार है

टूटे कभी न तार यह अमर पुकार का-

तुम साधना करो, अनंत साधना करो,

                तुम साधना करो ।


हम थे अभी-अभी गुलाम, यह न भूलना

करना पड़ा हमें सलाम, यह न भूलना

रोते फिरे उमर तमाम, यह न भूलना

था फूट का मिला इनाम, वह न भूलना

बीती गुलामियाँ, न लौट आएँ फिर कभी

तुम भावना करो, स्वतंत्र भावना करो

                तुम भावना करो ।

कविः गोपाल सिंह नेपाली

प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस