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स्नेह का अवमूल्यन / मुनीश्वरलाल चिन्तामणि

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याद है, मैं तुम्हारी शरण में आया था
तुम्हारे लिए मैंने
क्या कुछ नहीं किया
तुम्हारे लिए
लोगों से हाथा-पाई की
सिर फुटव्वल भी किया
बताओ
किस-किस डिसपेंसरी से
पट्टी नहीं बंधवाई मैंने तुम्हारे लिए
गुरु, तुम्हारी लीला अपरम्पार है
मेरी दशा पर सहानुभूति तो दूर
तुम मुझ पर हँस लेते हो, ठठा लेते हो
फिर भी मैं तुम्हें नमन करता हूँ
सोचा था
 तुमसे मुझे दिशा-बोध मिलेगा
जीवन में कुछ कर जाने के लिए
तुमसे जीवंत प्रेरणा ,मिलेगी
अब तुम मेरी ओर
पीठ करके क्यों सो रहे हो ?
यह तुम्हारी कैसी उदासीनता ?
गुरु, तुम्हारी कृपा बिना मैं
जैसे तैसे जी रहा हूँ

पर सोचो
यह जीने का ढंग क्या कुछ ढंग है ?
पता नहीं था कि
तुम्हारी कृपा का पौधा
चाय के पौधे की तरह नाज़ुक है
मैं जो ठहरा मेहनत का दीवाना
पुरुषार्थ का बेटा
किंतु हाय !
तुम्हारे साथ रहकर
मेरा चिंतन दिनों दिन ठूँठ होता जा रहा है ।
 तुम्हारे स्वार्थ के धुएँ में
अब मुझे कुछ नहीं सूझता
मैं भटक रहा हूँ
गुरु, मेरे डूबे हृदय को
शक्ति दे दो अंजुरी भर
नहीं तो लोग
तुम्हें धिक्कारेंगे
कहेंगे कैसा था वह गुरु
शिष्य को सूखे पत्ते की तरह
गिरने दिया
लोग यह भी कहेंगे कि
निराशा का चाकू
तुमने खोभ दिया है मेरी पीठ पर
और लोग यह भी सोचेंगे कि
मेरे प्रति तुम्हारा जो स्नेह था
उस स्नेह का अब
अवमूल्यन तो नहीं हो रहा ?