Last modified on 3 अप्रैल 2014, at 11:32

हरा था ज़ख्म जो बरसों से, भरने वाला है / फ़रीद क़मर

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:32, 3 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़रीद क़मर |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGha...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हरा था ज़ख्म जो बरसों से, भरने वाला है
तुम्हारी याद का मौसम गुजरने वाला है

मुझे पता है कि नफरत बुझा हरेक खंजर
मेरे ही सीने में इक दिन उतरने वाला है

तवील शब् है, मगर फिर भी हौसला रक्खो
यहीं से इक नया सूरज उभरने वाला है

तमाम शहर का फैला हुआ ये सन्नाटा
मेरे वजूद में जैसे उतरने वाला है

वो दूर उफ़क़ में थका सा लहू लहू सूरज
बड़े सुकून से कुछ पल में मरने वाला है

महक रही है गुलाबों से दिल की ये वादी
इधर से हो के वो शायद गुजरने वाला है