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हवा-एक-दो / केदारनाथ अग्रवाल

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एक
हवा पहाड़ी झरने की झनकार हो गई
जिस तक पहुँची उसको वह स्वीकार हो गई

दो
हवा कठिन सरकार हो गई
चल न सकी वह, भार हो गई

रचनाकाल: १६-०७-१९६१