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काँचहि बाँस केर माड़ो, सोने पतर छाड़ल , रूपे पतर छाड़ल हे / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

सजे-सजाये मंडप पर उपनयन के लिए ब्रह्मचारी अपने दादा-दादी के साथ बैठा है और भिक्षा की याचना कर रहा है। उपनयन के समय घी ढरकाने से अग्नि प्रज्वलित होती है। उसका प्रकाश स्वर्ग तक पहुँचता है, जिसे देखकर पितर लोग वंश-वृद्धि का अनुमान लगाकर प्रसन्न हो रहे हैं।

काँचहि<ref>कच्चे</ref> बाँस केर माड़ो, सोने पतर<ref>पत्ते; पत्र</ref> छाड़ल<ref>छवाया हुआ</ref>, रूपे पतर छाड़ल हे।
माड़ो चढ़ि बैठला बड़का दादा, जाँघ जोरी<ref>जाँव जोड़कर; जाँघ में सटकर</ref> ऐहब<ref>सौभाग्यवती</ref> दादी हे॥1॥
जाँघ चढ़ि बैठला दुलरुआ बाबू, दादा पिअर जनेउआ देहो हे।
दादा लाल जनेउआ देहो हे॥2॥
पिअर बसतर पहिरि लेहो, आँचर झाँपि भीखि देहो हे।
सोना भीखि देहो हे, मोती भीखि देहो हे॥3॥
माँड़ोहिं घियबा ढरकि गेल, सरँग इँजोत भेल हे।
सरँग के पितर अनंद भेल, आबे कुल बाढ़तऽ हे॥4॥

शब्दार्थ
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