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दोपहर का गीत / भारतेन्दु प्रताप सिंह

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मनमीत ठहर।
इस पनघट–पीपल ठांव
पुकारे प्यास
घिरी तपती–जलती लू बीच
बैठ बन्जर के बीचों-बीच
मेरे मनमीत ठहर।
सर की ओढ़न धूप नोचता
आंचल खींचे निर्जन
चढ़ी दुपहरी आती जाती
प्यास झांकती डगर-डगर
मनमीत ठहर।
जगाती वन-देवी हर रोज
तीसरे पहर ढले दिन–बीत
बैठ कर चिड़ियों, ढोरों बीच
निहारे प्यास, दूर की आस
विचरती जो पगडंडी छोर
बावली, गयी बटोही साथ
ठहर, मनमीत ठहर॥

घिर मरीचिका के नाच
धावते शावक जब बेचैन
बवंडर मथे मील दर मील
उड़ाते धूल लगाये दौड़
कभी इस पार-कभी उस पार
वन–देवी की आँख
जले–अंगार
मेरे मनमीत ठहर।

डालें चटकें ठूंठ पेड़ की
आतुर मन के भीतर,
नागफनी बंजर-पत्थर पर
बैठ मारती खूब झपट्टा
चूक-चूक कर
करती तीक्ष्ण प्रहार
बारम्बार,
मनमीत ठहर बस यहीं ठहर॥

बस इसी प्रहर तोड़ेगी वन देवी
अपना उपवास
मांगती उबला-जलता दूध
चढ़ाने खप्पर टीला-बीच
मेरे मनमीत ठहर।