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प्रथम अध्याय / द्वितीय वल्ली / भाग ३ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति

ॐ कार आलंबन अत्युतम, श्रेष्ठतम है, परम है,
कोई अन्य आलंबन नहीं, आश्रय यही तो परम है।
साधन अमोघ है ॐ जिसमें, परम प्रभु ज्ञातव्य है,
मर्म जान के ॐ का, साधक को प्रभु प्राप्तव्य हैं॥ [ १७ ]

है जन्म मृत्यु विहीन आत्मा, कार्य कारण से परे,
यह नित्य शाश्वत अज पुरातन कैसे परिभाषित करें।
क्षय वृद्धिहीन है आत्मा और नाशवान शरीर है,
आत्मा पुरातन अज सनातन मूल है अशरीर है॥ [ १८ ]

यहाँ कोई मरता है नहीं,और न ही कोई मारता,
ऐसा समझता यदि कोई वह तथ्य को नहीं जानता।
इस नित्य चेतन आत्मा का जड़ अनित्य शरीर से,
ना ही कोई सम्बन्ध ना ही बंधे जड़ प्राचीर से॥ [ १९ ]

जीवात्मा के, हृदय रूपी गुफा में, ईश्वर रहे,
अति सूक्ष्म से भी सूक्ष्म जो है, महिम से अतिशय महे।
परब्रह्म की महिमा महिम, विरले को ही द्रष्टव्य है,
द्रष्टव्य हो महिमा महिम की, और यही गंतव्य है॥ [ २० ]

सर्वत्र सब रूपों में व्यापक, प्रेम पद्म जगत्पते,
महे दिव्य परम एश्वैर्मय, अभिमान शून्य महामते।
आसीन पर गतिमान प्रभुवर दूर हैं पर पास हैं,
उस दिव्य तत्व की दिव्यता बस धर्मराज को भास है॥ [ २१ ]

यह क्षणिक है क्षयमाण क्षीण है, मरण धर्मा शरीर है,
सब हर्ष शोक विकार मन के, मोह के प्राचीर हैं।
अति धीर जन प्रज्ञा विवेकी, शोक न किंचित करें,
सर्वज्ञ ब्रह्म को जान कर, वे मोह न सिंचित करें॥ [ २२ ]

परब्रह्म ना ही बुद्धि ना ही वचन, श्रुति अतिरेक से,
ना तर्क गर्व प्रमत्त से, अथ ना सुलभ प्रत्येक से।
करते स्वयम स्वीकार जिसको, प्रभु उन्हें उपलब्ध है,
जो विकल व्याकुल भक्त जिनके भक्तिमय प्रारब्ध हैं॥ [ २३ ]

ये बुद्धि मन और इन्द्रियों, जिसके नहीं आधीन हैं,
कटु वृतिमय ज्ञानाभिमानी भी, प्रभु रस हीन हैं।
है शांत मन जिनका नहीं, और आचरण न ही शुद्ध है,
नहीं प्रभु कृपा उन पर रहे, वह चाहे कितना प्रबुद्ध है॥ [ २४ ]

संहारकाले स्वयम मृत्यु व प्राणी जिसका भोज हों,
अहम कालोअस्मि कथ, अथ का विदित क्या ओज हो।
उस मृत्यु संहारक परम प्रभु को भला कैसे कोई,
क्या जान पाये सृष्टि में उपजा नहीं, विरला कोई॥ [ २५ ]