Last modified on 18 मार्च 2011, at 16:49

मिलें दुआयें ज्यों फकीर की / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:49, 18 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान |संग्रह=तपती रेती प…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मिलें दुआयें ज्यों फकीर की

रिमझिम -रिमझिम
बरसा पानी
तपन धुली ठहरे समीर की
बिन मांगे जल मिला सभी को
मिलें दुआयें ज्यों फकीर की

तृप्ति मिली तरूओं को इतनी
पात-पात दृग सजल हो गये
कह न सके आनन्द हृदय का
तन से मन से बिमल हो गये
लहराये पुरवा के झोंके,
शीतलता ले नदी तीर की

खेत खेत में झूमी फसलें
ओढ़े सिर पर धानी चूनर
 बगुलें -बगुलीं उड़ी हवा में
इन्द्रधनुष को छूने ऊपर
परती खेतों की हरियाली
चरती हैं गायें अहीर की

ताल तलैया बढ़ आपस में
लगे मधुर आलिंगन करने
नारे नदी चले हो आतुर
सागर के घर जाकर मिलने
सोंधी गंध मिली माटी की
महक उठी कुटिया कबीर की।