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मिलें दुआयें ज्यों फकीर की / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
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मिलें दुआयें ज्यों फकीर की
रिमझिम -रिमझिम
बरसा पानी
तपन घुली ठहरे समीर की
बिन मांगे जल मिला सभी को
मिलें दुआयें ज्यों फकीर की
तृप्ति मिली तरूओं को इतनी
पात-पात दृग सजल हो गये
कह न सके आनन्द हृदय का
तन से मन से बिमल हो गये
लहराये पुरवा के झोंके,
शीतलता ले नदी तीर की
खेत खेत में झूमी फसलें
ओढ़े सिर पर धानी चूनर
बगुलें -बगुलीं उड़ी हवा में
इन्द्रधनुष को छूने ऊपर
परती खेतों की हरियाली
चरती हैं गायें अहीर की
ताल तलैया बढ़ आपस में
लगे मधुर आलिंगन करने
नारे नदी चले हो आतुर
सागर के घर जाकर मिलने
सोंधी गंध मिली माटी की
महक उठी कुटिया कबीर की।