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रेतीले टापू पर नाव चले / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र

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थकी-थकी घटनाएँ लौट रहीं
साँझ-ढले
 
चेहरे पर शिकन लिये
दिन-भर की टूटन की
बिखर गयी साँसों की
सपनों की उलझन की
 
हाथों में खालीपन
अँधियारे पाँव-तले
 
नंगे पछतावों के
भूलों के किस्से हैं
छोटा-सा आसमान
बेशुमार हिस्से हैं
 
धुआँ-घिरी सड़कों के पार
  कोई ठाँव जले
 
पेट-पीठ दोनों का
बोझ बहुत भारी है
प्यास बड़ी बूढ़ी है
पर पानी खारी है
 
रेतीले टापू पर रात-रात
नाव चले