(25)
दूसरो न देखतु साहिब सम रामै |
बेदौउ पुरान, कबि-कोबिद बिरद-रत,
जाको जसि सुनत गावत गुन-ग्रामै ||
माया-जीव, जग-जाल, सुभाउ, करम-काल,
सबको सासकु, सब मैं, सब जामैं |
बिधि-से करनिहार, हरि-से पालनिहार,
हर-से हरनिहार जपैं जाके नामैं ||
सोइ नरबेष जानि, जनकी बिनती मानि,
मतो नाथ सोई, जातें भलो परिनामैं |
सुभट-सिरोमनि कुठारपानि सारिखेहू
लखी औ लखाई, इहाँ किए सुभ सामैं ||
बचन-बिभूषन बिभिषन-बचन सुनि
लागे दुख दूषन-से दाहिनेउ बामैं |
तुलसी हुमकि हिये हन्यो लात, "भले तात,
चल्यो सुरतरु ताकि तजि घोर घामैं ||