Last modified on 4 सितम्बर 2012, at 17:33

चैपालों की काया कम होती जाती है / अश्वनी शर्मा


चौपालों की काया कम होती जाती है
हुक्के की गर्माहट भी खोती जाती है।

हिकमतअमली आदम की ही काम आयेगी
ये धरती कब बैलों से जोती जाती है।

इक जमीन का टुकड़ा क्या बेचा है मैंने
कई बहाने लेकर मां रोती जाती है।

इन्द्रधनुष की रंगीनी है आसमान में
घर की दीवारों पर कब पोती जाती है।

सुबह नीम की कड़वाहट मुंह भर जाती है
मगर रात है कि सपने बोती जाती है।

बोझ इकट्ठा होता जाता है सीने में
बेबस कमर मगर इसको ढोती जाती है।