न तुझसे न दिल-ए-ज़ार1 से उलझता हूँ
मगर मैं इश्क की बेगार से उलझता हूँ
खड़ा हूँ इसी रहगुज़र पे बरसों से
न तेरे दर से, न दीवार से उलझता हूँ
कभी तो मोल लगाता हूँ अपना भी लेकिन
कभी मैं गर्मी-ए-बाज़ार से उलझता हूँ
बड़ो-बड़ों को भी ख़ातिर में मैं नहीं लाता
कभी तो अपने ही मेयार से उलझता हूँ
मैं रोज़-रोज़ गज़ल इस लिए नहीं कहता
ख़याल-ए-ख़ाम2 के इज़हार से उलझता हूँ
1-कमज़ोर दिल 2-अपरिपक्व विचार