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{{KKRachna
|रचनाकार=नाज़िम हिक़मत
|अनुवादक=मनोज पटेल
|संग्रह=
}}
<poem>
जब सूरज की पहली किरणें पड़ती हैं मेरे बैल की सींगों पर,
खेत जोत रहा होता हूँ मैं सब्र और शान के साथ. साथ। प्रेम से भरी और नम होती है धरती मेरे नंगे पांवों पाँवों के तले. तले।
चमकती हैं मेरी बाहों की मछलियाँ,
दोपहर तलक मैं पीटता हूँ लोहा -- —लाल रंग का हो जाता है अन्धेरा. अन्धेरा।
दोपहर की गरमी में तोड़ता हूँ जैतून,
उसकी पत्तियाँ दुनिया में सबसे खूबसूरत ख़ूबसूरत हरे रंग की :सर से पाँव तलक नहा उठता हूँ रोशनी में. में।
हर शाम बिला नागा आता है कोई मेहमान,
खुला रहता है मेरा दरवाज़ा
सारे गीतों के लिए.लिए।
रात में, मैं घुसता हूँ घुटनों तक पानी में,
समुन्दर से बाहर खींचता हूँ जाल :
मछलियाँ और सितारे उलझे हुए आपस में. में।
इस तरह मैं जवाबदेह हूँ
दुनिया के हालात के लिए :
अवाम और धरती, अँधेरे और रोशनी के लिए. लिए।
तो तुम देख सकती हो, मैं गले तक डूबा हुआ हूँ काम में,
'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : मनोज पटेल'''
</poem>