भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ख़्वाब में उनका यूँ आना... / सुरेश सलिल
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:51, 6 जुलाई 2007 का अवतरण
ख़्वाब में उनका यूँ आना, मेरा जी जानता है
और आकर चले जाना, मेरा जी जानता है
सामने तो कभी पलकें न उठाईं, लेकिन
नींद में आँखें लड़ाना, मेरा जी जानता है
उनके वादे पे ए'तबार करके क्या कीजे
कौन किसका है दीवाना, मेरा जी जानता है
प्रीति की रीति का ये तौर ग़ौर के क़ाबिल
शब में जाना, सुबह आना, मेरा जी जानता है
सलिल ने शे'र कहा अश्कबार मक़्ते का
उनके इर्शाद का मा'ना, मेरा जी जानता है
(रचनाकाल : 1999)

