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प्यार के पचड़े / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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उमंगें पीसे देती हैं।
चोट पहुँचाती हैं चाहें।
नहीं मन सुनता है मेरी।
भरी काँटों से हैं राहें।1।

बहुत जिससे दिल मलता है।
काम क्यों ऐसा करती हूँ।
नहीं कुछ परवा है जिसको।
उसी पर मैं क्यों मरती हूँ।2।

सुनेगा कब वह औरों की।
बात अपनी जो सुनता है।
महक से उसको मतलब क्या।
फूल जो मन के चुनता है।3।

देख कर उसकी करतूतें।
न कैसे आँसू मैं पीती।
न इतना भी जिसने जाना।
किसी के जी पर क्या बीती।4।

समझ यों क्यों हो मन मानी।
बहुत मन मेरा रोता है।
फूल बन मैं जिस पर बरसी।
आग वह कैसे बोता है।5।

निठुर बन बन करके वह क्यों।
कुचलता है मेरी ललकें।
पाँव के नीचे मैं जिसके।
बिछाती रहती हूँ पलकें।6।

हाथ मलते दिन जाता है।
कलपते रातें हैं बीती।
नहीं वह मुख दिखलाता क्यों।
देख मुँह जिसका हूँ जीती।7।

कलेजा नहीं पसीजा क्यों।
सूखता है रस का सोता।
चाह सोने की रखता है।
हाथ का पारस है खोता।8।

लुभाने वाली बातों का।
पड़ा है कानों को लाला।
रह गईं आँखें प्यासी ही।
कहाँ पाया रस का प्याला।9।

मिल गया क्या इससे उसको।
बला में उसने क्यों डाला।
फूल जैसे मेरे जी को।
मल गया क्यों मलने वाला।10।