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चलो / प्रताप सहगल
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चलो हम
बंजर हुई ज़मीन में
कोई नया बीज डालते हैं
चलो बेवक़्त सूख गई नदी में
छिपे हुए सोते का
मुहाना खोलते हैं
चलो पतझड़ के मौसम में
ज़िद करके
एक नया पौधा रोपते हैं
चलो कनकनी हो गई हवा में
एक नई खुशबू बिखेरते हैं
चलो मद्धिम होते सूर्य को
अपनी-अपनी ऊष्मा से
दिपदिपाते हैं
चलो वक़्त की रगों में
नया ख़ून भरते हैं
चलो साँसों में कोई नई सरगम उतारते हैं
चलो
हम संबंधों का एक नया शास्त्र रचते हैं।

