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तुम्हारी क्या इच्छा है नाथ! / स्वामी सनातनदेव

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राग भैरवी, कहरवा 25.9.1974

तुम्हारी क्या इच्छा है नाथ!
समझ न सका तुम्हारा आशय, कब पकड़ोगे हाथ॥
मिले-मिले भी दूर भासते, कैसा है यह साथ।
भीतर - बाहर सभी ओर पर कभी न आते हाथ॥1॥
गाते और सुनाते सब ही प्रिय! तव बहु गुण-गाथ।
देव-देव भी सदा झुकाते चरणों में निज माथ॥2॥
हो ऐसे वैभवशाली, तव मुझ-सा दीन अनाथ।
कैसे चरण - शरण पायेगा, कैसे लोगे साथ॥3॥
पर जब तुम सब ही के हो तो क्या अनाथ क्या नाथ।
सब के नाथ तुम्हीं तो हो, तुम ही से सभी सनाथ॥4॥
बस, मैं भी क्रीडनक<ref>कठपुतली, गेंद आदि खिलौना।</ref> तुम्हारा, सदा तुम्हारे हाथ।
जैसे चाहो मुझे नचाओ, रखो सदा ही साथ॥5॥
मेरा अपना है न कहीं कुछ, सभी तुम्हारा नाथ।
पर तुम तो मेरे ही हो फिर मैं क्यों बनूँ अनाथ॥6॥

शब्दार्थ
<references/>