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प्रकीर्ण / श्रृंगारहार / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
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पडुआक वधू - ओढ़ि आवरन आभरन सुवरन कति छवि मंति
हरलि हमर रसिक क हृदय रंगिनि के रसवंति?।।1।।
कर बसि, भुज धरि, संग बसि, गुप चुप नित बतियाथि
केहन रंगिनी संग लय प्रिय न समक्ष लजाथि।।2।।

