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निर्गतोऽहं गृहात् / कौशल तिवारी

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गड्डरिकाप्रवाहन्यायेन निर्गतोऽहं गृहात्।
पूर्णो भूत्वाऽपि रिक्तहस्तो निर्गतोऽहं गृहात्॥
देवालयेष्वपि न मिलितं रे! तन्मदानन्दं नु,
यमाप्तुं त्यक्त्वा नेत्रमदिरां निर्गतोऽहं गृहात्॥
अहह! विपण्यां भ्रान्तोऽहं कुत्रचिद् दिवसेऽपि खलु,
प्रातरात्मानं गवेषणाय निर्गतोऽहं गृहात्॥
प्रत्यागतोऽहं गृहं दृष्ट्वा दुःखमेलापकं,
स्वीयदुःखपोट्टलिकां क्षेप्तुं निर्गतोऽहं गृहात्॥
मे पुरतस्तु तत्सर्वमासीत् सदने पूर्वमेव,
यं प्राप्तुं त्यक्त्वा गेहत्वं निर्गतोऽहं गृहात्॥