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सर्पिणी राहें / शिवबहादुर सिंह भदौरिया
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एक-दूसरे को
काटती हुई सर्पिणी राहें
ढकेलती हुई
ले आयीं-
महानगर से बाहर,
खुली हवा
मन्त्र-फूँकों से
उतारती है
रग-रग में फैला हुआ-
जहर।

