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बस के सफर में / अमरजीत कौंके
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बस के सफर में
मुझ से अगली सीट पर
बैठी हुई थी औरत एक
साथ में पति उसका
गोद में बच्चा खेलता
एक छोटा सा
ममता से भरी वह औरत
उस छोटे से बच्चे को
चूम रही थी बार-बार
मासूम उसके चेहरे के साथ
छुआ रही ठोड़ी थी अपनी
उसके भीतर से
फूट रही थी भर-भर ममता
उसके अंदर से छलक रहा था
ममता का प्यार
मेरे मन में युगों-युगों से
दबी हुई
इक जागी हसरत
मेरे मन में सदियों से सोया
आया ख्याल
काश! कि इस औरत की
गोद में लेटा
छोटा सा बच्चा मैं होता
काश! कि यह औरत
मेरी माँ होती।

