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शाम, उदासी फिर लाई है / अमरेन्द्र
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शाम, उदासी फिर लाई है
बेचैनी और तन्हाई है।
मैं भी अकेला पागल जैसा
मारा फिरता बादल जैसा
व्यर्थ हुआ मैं दलदल जैसा
या कालिख पर काजल जैसा
उमर हो चली बूढ़ी, लरपच
पर इच्छा तो अनव्याही है।
लगता मरु की नागफनी हूँ
लाखों दुख का एक धनी हूँ
या अभाव की आमदनी हूँ
सर्प-विवर का मणिचक मणि हूँ
जिनगी मेरी दुख की पोथी
आँसू ने यह छपवाई है।
रोम-रोम अक्षर पढ़ डालो
फिर जो चाहो, अर्थ निकालो
एक कथा, एक काव्य बना लो
चाहो तो यह सत्य छुपा लो
साथी का संग जबसे छूटा
पीछे पीर ये हरजाई है।

