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छोड़े हुए गो उसको हुए है / साग़र पालमपुरी
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Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:59, 21 जून 2008 का अवतरण
छोड़े हुए गो उसको हुए है बरस कई
लेकिन वो अपने गाँव को भूला नहीं अभी
वो मदरिसे,वो बाग़, वो गलियाँ ,वो रास्ते
मंज़र वो उसके ज़ेह्न पे हैं नक़्श आज भी
मिलते थे भाई भाई से, इक—दूसरे से लोग
होली की धूम— धाम हो या ईद की ख़ुशी
मज़हब का था सवाल न थी ज़ात की तमीज़
मिल—जुल के इत्तिफ़ाक से कटती थी ज़िन्दगी
लाया था शहर में उसे रोज़ी का मसअला
फिर बन के रह गया वही ज़ंजीर पाँओं की
है कितनी बेलिहाज़ फ़िज़ा शह्र की जहाँ
ना—आशना हैं दोस्त तो हमसाये अजनबी
माना हज़ारों खेल तमाशे हैं शह्र में
‘साग़र’! है अपने गाँव की कुछ बात और ही

