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अवतरण / अंतर्यात्रा / परंतप मिश्र

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तुम कहते हो
कवितायेँ लिखता रहूँ
पर मेरे प्रिय मित्र!
मैंने कभी कविता लिखी ही नहीं
और सम्भवतः कभी लिख भी नहीं सकूंगा
वह तो अवतरित होती है
निराकार से साकार की ओर प्रयाण
शब्द खोजने नहीं पड़ते
झरने लगते हैं जैसे आशीर्वाद
भोली संवेदनाओं से उपजे भाव
मन के पंख लगाकर
हृदय की धराभूमि पर
नव सृजन की अज्ञात आहट, जैसे

उन्मुक्त पहाड़ी सरिता का प्रवाह
बन बह जाती है
पत्थरों से झाँकती अविकसित प्रतिमा
प्रकट होती है
घुमड़ते हुए बादलों की अंतर्व्यथा
बरस जाती है
प्रसव पीडिता की असह्य वेदना
जन्म देती है
अंकुरित होते बीज की जीवनी-शक्ति
प्रस्फुटित होती है
 
जिसे तुम कविता कहते हो