भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बीती बात भुला लेने दो / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:04, 7 नवम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामगोपाल 'रुद्र' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं लूँ समझ कि सब सपना था,
जो कुछ था, भ्रम-भर अपना था;
इस रस में क्या स्वाद मिलेगा?
मन को और घुला लेने दो!

ठंढी तो हो ही जाएँगी,
बादल बन जब ये छाएँगी,
कुछ दिन तो तल की ज्वाला में
चाहों को अकुला लेने दो!

इतने तड़के आज पधारे!
जाग रहे जब दीये-तारे;
ठहरोगे? ठहरो, आँखों की
गीली धूल धुला लेने दो!